Dec 26, 2013

सूर्योदय

26 दिसम्बर, 2013 की सुबह। बनारस-बलिया मार्ग। ट्रेन से खींची गई सूर्योदय की तस्वीरें..। सूर्यदेव दिखने शुरू हुए जब अपनी पैसिंजर ट्रेन गाजीपुर के पास पहुँची। मेरी आँखों से तो दिखने लगे मगर इनकी आभा इतनी फीकी थी कि मेरा कैमरा देख ही नहीं पा रहा था। धीरे-धीरे मेरे कैमरे ने भी देखना शुरू किया... 


ट्रेन में उदित हो रहे सूर्य को देखते रहने का आनंद कुछ अलग है। कभी फैले खेतों के मध्य दूर क्षितिज में, कभी किसी घर के पीछे,  कभी खेतों में जमा हुए पानी में डूबे हुए तो कभी ट्रेन की अकस्मात होती खड़खड़-खड़खड़ के बीच किसी नदी की लहरियों में तैरते से.. 





देखते ही देखते सूर्यदेव अपने फुलफॉर्म में आ गये और मेरी आँखों के साथ-साथ मेरे कैमरे की नज़रें भी उनको देखने में असहाय हो गईं।


सूर्य की सुनहरी किरणें धरती पर सोना उगलने लगीं। पंछियों को दाना, जानवरों को भोजन मिलने लगा। 


सरसों के फूल सुनहरे पीले हो गये....



मेरी आज की यात्रा यहीं कहीं समाप्त हुई.....

Dec 5, 2013

'कौल कन्डोली'







जम्मू स्थित 'कौल कन्डोली' मंदिर के परिसर में स्थापित इस वटवृक्ष के बारे में वहाँ यह लिखा मिला-

इस वट वृक्ष को अक्षय वट कहा जाता है। कहते हैं द्वापर युग में अज्ञातवास के समय पाण्डव यहां पर आये थे और माँ की अरदास की थी। माँ ने उनकी अरदास स्वीकार किया और स्वप्न में वरदान दिया कि उनका राज्य वापस मिल जायेगा। उसी रात पाण्डवों ने माँ के मन्दिर का निर्माण किया। पंडित श्रीधर ने इसी वट वृक्ष के नीचे कई वर्षों तक कठिन तप किया। माता वैष्णो देवी पाँच वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हुई और दर्शन देते ही पंडित श्रीधर को भण्डारा लगाने को कहा। किन्तु पंडित श्रीधर ने असमर्थता व्यक्त की। उसी समय माँ ने चाँदी के कटोरे में छप्पन प्रकार के व्यंजन प्रकट किये। भण्डारे के लिए माताजी लोगों को गोलाई में बैठाती थीं। गोलाई को इस जगह 'कन्डोली' और कटोरे को 'कौल' कहते हैं। इसीलिये यहाँ माताजी का नाम कौल कन्डौली के नाम से विख्यात है। इसी वट वृक्ष के नीचे बैठकर माताजी ने 12 वर्षों तक तपस्या की। दर्शन के लिए जब भक्त आते थे तो मताजी उनके साथ इसी वट वृक्ष पर झूला झूलती थीं। इसलिये आज भी लोग मनोकामना के लिये झूले बांधते हैं। माँ वैष्णोदेवी सर्वप्रथम यहाँ प्रकट हुई थीं, इसलिये माँ वैष्णो देवी यात्रा का पहला दर्शन है- "कौल कन्डोली" ।