उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल जिलों में पैसिंजर
ट्रेन की यात्रा का भी अलग ही अनुभव होता है। हर छोटे-छोटे स्टेशन पर गाड़ी रूकती
है। 15-20 मिनट के अंतराल पर एक स्टेशन आता है। हवा रूक जाती है, उमस-गर्मी बढ़ने लगती है, पसीना
बहने लगता है और आता है चढ़ने-उतरने वाली भींड़ का जोरदार झोंका।
अरे माई रे माई! हटा, पहिले उतर जाये दा! बहुते भीड़ हौ! कउनो सीट खाली नाहीं हौ! जैसे शब्दों की चीख-पुकार बार-बार
कानो में सुनाई पड़ती है। आप बैठे हैं तो भाग्यशाली हैं। खड़े हैं तो टकटकी लगाये
देखते रहते हैं कि कहीं कोई थोड़ा सा सरक जाये तो कित्ता अच्छा हो!
मुझे भी ‘बनारस’ से चलकर सुबह दस बजे ‘बलिया’ पहुँचना था और एकमात्र पैसिंजर ट्रेन
थी जो मुझे 10 बजे बलिया पहुँचा सकती थी। यह सुबह बनारस से पाँच बजे छूटती है और
10 बजने से 15 मिनट पहले ही बलिया पहुँचा देती है। मैं भाग्यशाली था कि मुझे चढ़ते
ही सीट मिल गई। थोड़ी देर बाद सूर्योदय होने लगा और मेरी उंगलियों ने आदतन कैमरे
को जेब से खींच कर बाहर निकाल दिया। चलती ट्रेन से तस्वीर खींचना कठिन है। वह भी
इस भीड़-भाड़ वाली ट्रेन में बैठकर। मैं उठकर दरवाजे के पास गया और कुछ स्नैप उतार
लिये.....
अपने स्थान पर बैठ गया। मैं जिस खिड़की के पास बैठा था वहाँ से
पश्चिम दिशा की तस्वीरें खींची जा सकती थीं। सूर्योदय की नहीं। जहाँ ट्रेन के रूकने का कोई औचित्य नहीं, वहाँ भी
बीच-बीच में लोग चेन पुलिंग कर रहे थे और चढ़ उतर रहे थे। कई बार तो ऐसा हुआ
कि ट्रेन रूकी लोग उतरकर पेशाब करने लगे फिर दौड़कर चढ़ लिये। कित्ते सकून की
यात्रा है! यह
सुख सुपर फॉस्ट एक्सप्रेस से एसी में बैठकर यात्रा करने वाले क्या जाने!!!
बीच-बीच में ऐसे दृश्य भी दिख जाते-
फिर आता स्टेशन....
दिन में अपना काम खतम कर के शाम को जब लौटने
लगा तो फिर यही ट्रेन मिली। यहां से पाँच बजे छूटती है और रात 10 बजे के आसपास
बनारस पहुँचाती है। दुर्भाग्य से ट्रेन एक घंटा
लेट थी। स्टेशन पर ही सूरज ढलने लगा। मैने कहा, रूको जी! तुम्हारी भी एक तस्वीर
खींचता हूँ.....
सूरज बढ़िया नहीं आया लेकिन ये दो लोग पलेटफारम
पर बैठकर क्या खिचड़ी पका रहे हैं? कुछ समझ में नहीं आया। इत्ता समझ में आया कि एक
सज्जन समझा रहे थे दूसरे मगन भाव से समझ रहे थे।
प्लेट फार्म में एक बनारस जाने वाले यात्री मिल
गये। मैं उनसे गप्पें लड़ाते-लड़ाते समय काटने लगा। जब मैं गप्पें लड़ा रहा था तो
मुझे इस चेतावनी का भी खयाल था कि अनजाने यात्रियों से मित्रता नहीं करनी चाहिए।
मैं खूब ध्यान से गप्पें लड़ा रहा था। अपन पूर्वांचल के लोग इस मामले में बड़े
कमजोर होते हैं। मुँह में ठेपी लगाये यात्रा कर ही नहीं सकते। गंभीर रह ही नहीं
सकते। कुछ चोट्टों ने समाज में कितना जहर बो दिया है! आदमी आदमी से बात करने से पहले दस बार
सोचता है। बतियाते-बतियाते ट्रेन आ गई और फिर एक बार हम भाग्याशाली सिद्ध हुए।
बैठने के लिए खिड़की मिल गई! लेकिन कैमरे को सूटकेस में रखना पड़ा। बाहर अंधेरा हो चुका था।
मैं ओशो की किताब निकालकर पढ़ने लगा-स्वर्णिम
बचपन। ट्रेन किसी स्टेशन पर रूकती तो ढेर सारे कीट-पतंगे खिड़की से कूद कर भीतर आ
जाते। एक कीड़ा शर्ट के भीतर से घुस कर थुलथुले पेट पर नृत्य करने लगा। मैं किताब
बंद कर उसे निकालने का प्रयास करने लगा। पास बैठे यात्री ने कहा-बिजुरिया बंद कै
देईं!(बिजली
बुझा दीजिए) मैने कहा-राहे द! अब्बे टरेन चली तs किरौना भाग जाई।(अभी ट्रेन चलेगी तो
कीड़े भाग जायेंगे) ट्रेन चली। शीतल हवा
का झोंका भीतर आया। मैं फिर किताब पढ़ने लगा। रह-रह कर अजबी-अजीब आवाजें सुनाई
देतीं और ध्यान भंग हो जाता। मुजफ्फर नगर का दंगा, अखिलेश सरकार, दिल्ली कांड पर
सजा का फैसला से लेकर गोरकी पतरकी रे...जैसे गीतों की आवाजें भी कानो में पड़ने
लगी। मैं भी किताब बंद कर उनकी बातें सुनने लगा।
इतने में एक स्टेशन आया। चढ़ी
भीड़ से एक लड़का आकर ऊपर सोये यात्री पर चीखने लगा-उठके बैठीं..सबके जाये के बा..उठींsss । ( उठकर बैठिये, सबको जाना है, उठिये)
वह अचकचा कर उठा। उठते ही उसने दूसरे प्रकार की नौटंकी शुरू कर दी। सामने बैठी
प्रौढ़ महिला से कहने लगा-ऐ बहिनी! लिटिया धइले हईं? देईं! भूख लगल बा.. (ऐ बहना, लिट्टी रख्खी
हो? दे, दो। भूख लगी है...) वह महिला अचरज़ से मुस्कुराई- सच्चो!!! खइबा? लड़का और चहक कर बोला- हँ, हँ, देईं! उसने अपने सर पर बंधा गमछा खोला और
फैला दिया। उस महिला ने भी अपनी गठरी खोली और लिट्टी तलाशने लगी। हाय दइया...! लिटिया त छूट गइल! ( हे भगवान लिट्टी तो छूट गया!)
भूनल चना बिया, खइबssss? (भूना हुआ चना है, खाओगे?) हँ.. हँ.. देईं, बड़ी जोर कs भूख लगल बा! महिला भी बड़े प्रेम से अंगोछे में
चना डालने लगी। तीन मुट्ठी चना डालने के बाद पूछी-अउर? लड़का बोला-नाहीं..बस करीं। अचरवो देईं! ऊss का हs रखले तs हई
?
लिटिया पतोहिया धs लेहली का रे! ( नहीं, बस करो। लिट्टी बहू ने रख लिया क्या? ) महिला मुस्कुराती अचार भी डालने लगी। खाने से पहले साथ बैठे यात्रियों से पूछना भी
नहीं भूला कि क्या आप लोग भी खाना पसंद करेंगे ? सभी ने जब इनकार किया तो वह बड़े प्रेम
से खाने लगा और मैं याद करता रहा उस गंभीर चेतावनी को...यात्रा के वक्त अनजान
यात्रियों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए। वे अजनबी थे लेकिन उनके सहज मानवीय रिश्तों
में कोई कमी नहीं थी।
हमारा समाज लाख पिछड़ा हो, लाख गरीबी हो लेकिन
हमारे समाज में आज भी आपसी प्रेम और भाईचारे वाले मानवीय रिश्तों की कमी नहीं है।
कुछ राक्षसों ने इन रिश्तों में खूब ज़हर घोला है। अनपढ़ ग्रामीणों पर अभी न तो इस
चेतावनी का असर है और न ही प्रेम में किसी प्रकार की कमी। काश! सभी अनपढ़ होते।
............................
कुछ शब्द चित्र, कुछ कैमरे की मदद। कैसा रहा यह संस्मरण ?
बहुत मज़ा आया जी!
ReplyDeleteबहुत सहज लोग
ReplyDeleteकितना सरल जीवन ! -
सही है। छोटी-छोटी खुशियाँ, छोटे-छोटे-छोटे ख्वाब।
DeleteThe route most traveled for me :)
ReplyDeleteपढ़कर बहुत अच्छा लगा
ReplyDeleteजानकर खुशी हुई।
Deletewaah...bahut sundar aankho dekhi:-)
ReplyDeleteUttar Pradesh ka apna hi ek rang hai...thodi-thodi bhojpuri beech mein nazaare ko sajiv kar diya ekdum:-)
मस्त संस्मरण रहा देवेन्द्र भाई, शुरू की दो तस्वीरें तो एकदम गज़ब हैं।
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी। वास्तव में वे दो तस्वीरें ही अच्छी आई हैं। शेष तो वर्णन के लिए डाल दीं। :)
Deleteअरे नहीं सरकार, तस्वीरें सभी अच्छी हैं। शुरू वाली दो अच्छीएस्ट हैं बस :)
Deleteवाह क्या बात है
ReplyDeleteशिमला बना दिए हो इस सफ़र को -आदमी की तो यिअहै खासियत हौ -कौनों भी दशा में रहे समाज को कुछ न कुछ देता ही रहता है -देते जाईये आप :-)
ReplyDeleteआपने लेखक के मन को भी पढ़ लिया..आभार।
Deleteवाह, आनन्द आ गया। ट्रेन की पटरियों से दिखने वाले दृश्य सच में मन मोह लेते हैं।
ReplyDeleteआपके लिए तो यह कोई नहीं चीज नहीं है। :)
Deletesundar yatra vritant......pics bahut acche.
ReplyDeleteगज़ब की तस्वीरें खींच लीं आपने ..कैमरे से भी और शब्दों से भी.
ReplyDeleteमनमोहक सुंदर चित्र ! बेहतरीन प्रस्तुति !!
ReplyDeleteRECENT POST : बिखरे स्वर.
सुन्दर मनमोहक चित्र स्मृतियों की अनोखी दुनिया में ले जाते हैं , माटी की महक यहाँ तक आती है !
ReplyDeleteसफ़र में अनजाने लोगो के साथ खाना शेअर करना आजकल असंभव सा लगता है , कुछ स्थानों पर बचा है यह , जानकर अच्छा लगा !
चित्रों के साथ ... लाजवाब संस्मरण ... भाषा संवाद का आनंद कमाल का है ...
ReplyDeleteवाह, बहुत मजेदार रचना
ReplyDeleteवाह! सचमुच मजेदार रहा होगा।
ReplyDeleteमैं एक ही बार गया हूँ उस रूट पर - वो भी जून में मालगाड़ी पर।
अच्छा रहता है न ठेठ हो जाना। :)
हाँ, जैसा देश वैसा भेष।..धन्यवाद।
Deleteपैसेंजर ट्रेन में जो मजा है,वो फास्ट में नहीं मिलता,मगर आपकी तरह मजा लेना भी आना चाहीये.येक बात कहूँ कि लडके ने खुद मागकर खाया,महिला ने दिया न था.किसी का दिया हुआ तो खाना खतरनाक हो ही सकता है.
ReplyDeleteयेकबार जब मै जोगबनी से मुगलसराय जा रहा था तो मुझसे भी दो लोगों ने खाने की फरमाईस की थी,मगर मैंने लिया नहीं,डरकर.वैसे वो भी वही सब खा रहे थे जो मुझे दे रहे थे.बाद में उन लोगोंने मुझे ओढने के लिये शौल दिया ,जो मैंने ले लिया था.बहुत अछ्छे लोग थे और पंजाब के थे.
हाँ, इस फर्क को तो समझना ही पड़ेगा। कौन प्रलोभन दे रहा है और कौन इंसानियत दिखा रहा है।
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