Oct 9, 2016

काश! हिरण के हाथ होते!!!







ऊपर के तीन चित्रों पर एक कहानी लिखिए. शुरुआत मैं करता हूँ.....

काले कौए ने कहीं से मोर का एक पंख पाया. पंख झर चुका है खाली डंडी बची है. बार-बार उठाकर हिरण को देना चाहता है. हिरण के हाथ नहीं हैं . पंख जमीन पर गिर जाता है. कौआ फिर पंख उठाने का प्रयास करता. काश! हिरण के हाथ होते!!!

Apr 20, 2016

ठग

आज राह चलते दिखा यह बाबा. एक अपाहिज के माथे पर हाथ फेर कर उसे आशीर्वाद देने की नौटंकी कर रहा था और पैसे मांग रहा था.


जब अपाहिज ने पैसे दे दिए तो मुझे दुःख और आश्चर्य भी हुआ. मेरे हाथ में कैमरा देख भाग चला. गुस्से से बडबडा रहा था...मेरी फोटो क्या खींचते हो? गंगा घाट जाओ! बहुत बाबा मिलेंगे!!!


एक अपाहिज को भी मूर्ख बनाकर पैसे ऐंठने वाला कितना साधू और कितना ठग होगा यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. 

Apr 4, 2016

हर हर गंगे

पंचगंगा घाट की सीढ़ियाँ उतरते ही कलशू गुरु से आँखे चार हुईं। पुराने जजमान को देख उनका चेहरा उगते सूरज की तरह चमकने लगा। अपना झोला उन्हें सौंप, हाथ में कैमरा लिये मैं घाट-घाट घूमने चला। साथ में आग्रह कि पटना वाले प्रमोद जी आयेंगे तो उन्हें बिठाये रखना।
प्रमोद जी कभी बनारसी हुआ करते थे। हम कक्षा 6 से मास्टरी तक साथ ही पढ़े। पापी पेट ने उन्हें बिहार में नौकर बना दिया, मुझे उत्तम प्रदेश में। आज बड़े अफसर हैं मगर हमसे वैसे ही मिलते हैं जैसे पढ़ते समय मिलते थे। बाबा के भगत हैं। पिताजी को देखने के बहाने बनारस आते हैं और सबसे पहले पंचगंगा घाट में डुबकी लगाते हैं, गंगाजल लेते हैं और बाबा को गंगाजल से अभिषेक करने के बाद ही चैन से रहते हैं। पटना में घर बनाकर पूरी तरह बिहारी बाबू हो गए मगर बनारस से उनका प्रेम कम नहीं हुआ। गंगा, बाबा विश्वनाथ, मित्र और बूढ़े पिताजी चारों में कौन सबसे प्रिय है कहना मुश्किल है। जब तक इन चारों में एक भी है तो इनसे बनारस छूट नहीं सकता, ऐसा हमारा विश्वास है।
सूर्योदय के समय दशास्वमेध घाट, अस्सी घाट या और इक्का दुक्का घाटों को छोड़ शेष में भीड़ नहीं होती। बड़ा शांत-शांत माहौल रहता है। बनारस में गंगा उत्तर वाहिनी हैं। उस पार बालू की रेती के पीछे से निकलते हैं सूर्यदेव और धनुषाकार पश्चिम में बसे घाट स्वर्णिम आभा से जगमगा जाते हैं।
रोज गंगा स्नान करने वाले कपड़े उतार, लँगोटी या बनारसी लाल अंगोछा पहने बैठे रहते हैं मढ़ी के किनारे घाट की सीढ़ियों पर। कुछ लगा रहे होते हैं गोते। कोई मढ़ी पर बैठ बिखेर रहा होता है परिंदों के लिये दाने।
कोई खिला रहा होता मछलियों को आंटे की गोलियाँ। कहीं मंदिर के घण्टे की धुन, कहीं परिंदों के कलरव, कहीं से आ रही मन्त्रोच्चार के ऊंचे स्वर और कहीं मढ़ी पर बैठ बंसी की धुन से सूर्यदेव को जगा रहा कोई साधक।
इतना कुछ सौंदर्य बिखरा पड़ा है सुबहे बनारस में कि कैमरा सही तस्वीर खींच नहीं पाता।
मैं इधर-उधर घूम कर जब लौटा तो प्रमोद को कलशू गुरु के पास बैठे पाया। मुझे देखते ही उसने उलाहना दिया-का पाण्डे बाबा! कहाँ हेरा गइला? आधी घण्टा से बैठल हई। तोहरे बिना गंगा में उतरे क मन नाहीं करत! और हम जल्दी-जल्दी गंगा में उतर थोड़ी देर की तैराकी के बाद ही हाँफते हुये डुबकी लगाने लगे।

Feb 14, 2016

एक विश्वविद्ध्यालय यह भी तो है !

जब टी. वी. चैनलों से जे.एन.यू. की खबरें आ रहीं थीं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अपना शताब्दी वर्ष बड़े धूम धाम से मना रहा था . राष्ट्र विरोधी खबरों का इतना मौन और सशक्त विरोध और कहीं देखने, सुनने को नहीं मिला लेकिन अफ़सोस! टी.वी. चैनलों को इसकी भनक तक नहीं लगी!








Jan 10, 2016

मेहनत के फूल

एक ही स्थान से लिए गए दो चित्र हैं। पहले में पौधे रोपे गए हैं, दूसरे में फूल खिल चुके हैं।